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{{KKRachna<br />
|रचनाकार=कुमार विकल<br />
|संग्रह= रंग ख़तरे में हैं / कुमार विकल<br />
}}<br />
<br />
<br />
पिछले दिनों<br />
<br />
मैंने मृत्यु को बहुत निकट से देखा<br />
<br />
महाश्वेता,विशाल काया<br />
<br />
सारे शरीर पर बर्फ़ की लोमहर्षक पोशाक<br />
<br />
सफ़ेद अँगुली के इशारे से मुझे बुलाती हुई<br />
<br />
अपनी बर्फ़ानी भुजाओं में<br />
<br />
बाँधने के निमंत्रण देती हुई<br />
<br />
शराबखाने में मेरे पास खड़ी<br />
<br />
मेरे कमज़ोर हाथों में<br />
<br />
गिलास—दर गिलास थमाती रही<br />
<br />
मेरे पेट में अल्सर का कैक्टस उगाती रही<br />
<br />
मुझे अस्पतालों, मानसिक चिकित्सालयों में<br />
<br />
भटकाती रही.<br />
<br />
और मेरे शरीर पर अपनी प्रेत—लिपियों में<br />
<br />
तरह—तरह की बीमार भाषाएँ लिखती रही<br />
<br />
और मुझे बीमार भाषाएँ सिखाती रही<br />
<br />
अपने हिमलोक में मुझे<br />
<br />
हिमशिलाओं पर बनीं<br />
<br />
मेरे पित्तरों और प्रियजनों की आकृतियाँ दिखाती रही<br />
<br />
मुझे एक हिमशिला से दूसरी हिमशिला तक ले जाती रही. <br />
<br />
<br />
… और जब मैं<br />
<br />
नीम बेहोश हालत में<br />
<br />
रात घर को लौटता<br />
<br />
तो अक्सर<br />
<br />
घर की सीढियों पर<br />
<br />
मेरे साथ लेट जाती रही<br />
<br />
लेकिन हर बार<br />
<br />
मेरी जिजीविषा से हार जाती रही. <br />
<br />
<br />
यह शायद इसलिए कि मैंने अपनी जिजीविषा को<br />
<br />
एक बहुत बड़े संकल्प की भट्टी में तपाया था<br />
<br />
और उससे ऐसा ताप पाया था<br />
<br />
कि महाश्वेता की बर्फ़ीली बाहों में<br />
<br />
सोने के बावजूद<br />
<br />
एक बत्ती मेरी आँखों में टिमटिमाती रही<br />
<br />
सीढियों के अँधेरे से<br />
<br />
कमरे की रौशनी में ले जाती रही.</div>अनिल जनविजय