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माँ! तुम्हारी गंध / अनुपम कुमार

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माँ! मुझसे आती है अब भी
तुम्हारी गंध कभी-कभी
जिसे मैं ही सूंघ पाता हूँ
मेरी बीवी मेरे बच्चे
इसे समझ नहीं पाते
भाई-बहन शायद जान जाएँ
पिता अच्छी तरह महसूस कर सकते हैं
माँ! तुम्हारी मधुर हंसी
बरबस मेरे होंठो पे आती है
 तुम्हारे युवाकाल की निर्मल हंसी
सबको मोहनेवाली
पर मेरी हंसी पे कोई लुभाता नहीं
भाई-बहन शायद पहचान लें
पिता जान जाते हैं
तुम्हारी वो हंसी मेरे होंटों पर

माँ! तुम्हारी मधुर आवाज़
तुम्हारा सुरीला गान
कोकिल कंठी तान
मेरे गले से बरबस
प्रस्फुटित कैसे हो जाती है !
मुझे कभी समझ नहीं आया
भाई-बहन चाहें तो सुन सकते हैं
पिता अवश्य जानते हैं
तुम मुझमें गाती हो

माँ! तुम्हारी गंध
तुम्हारी हंसी
तुम्हारी आवाज़
सुरक्षित है मुझमें
जब तक मैं ज़िन्दा हूँ माँ!
जब तक मैं ज़िन्दा हूँ माँ!