भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

माँगना तुम्हीं / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:03, 12 सितम्बर 2019 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

57
नत है शीश
करता हूँ वंदन
तेरा ही सुख माँगूँ ,
प्रतिपल मैं
करूँ हित चिंतन
साँसों में बसाकर।
58
रंग या रूप
यौवन की ये धूप
माना सब नश्वर,
मन के भाव-
न आयु -लिंग भेद
गङ्गा नहाके आए।
59
कुछ न करो
कभी पल दो पल
करो जो सुमिरन,
माँगना तुम्हीं
मिलन का प्रभात
सुख के दिन-रात।
60
लौटना कभी
किस गाँव की गली
मुझे पता ही नहीं
मैं बनजारा
मेरा न कोई गाँव
घर-द्वार भी नहीं।
61
उजाड़ वन
हमने बसाए थे,
फूल भी खिलाए थे
भूलके कभी
तोड़ी न कोई कली
क्या यही ग़ुनाह था!