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माँगूगी नहीं क्षमा / उर्मिल सत्यभूषण

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मेरी उद्धत अनास्था
से उपजी कटु वाणी
चूर-चूर कर जाती है
मेरी संवेदनाओं से
निर्मित्त कोमल कान्त नातों को
मुझको ही कर जाती
बेचैन रातों को
अश्वत्थामा की मनोग्रन्थि सी
ही, यह मेरी विकृति है
टूटे हुये विश्वासों की
चरम परिणति है
मिलता है दंड तो
भोगूंगी उसको मैं
मिलने दो मुझको सजा
मांगूगी नहीं क्षमा आज।