भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

माँ ! तुम याद बहुत आती हो / सुधा ओम ढींगरा

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:25, 26 जून 2017 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरा बच्चा,
जब हँसता,
रोता,
अठखेलियाँ करता है,
ऐसा लगता है
मानों लौट आया हो
बचपन मेरा.
बच्चे को देख
जब ख़ुश होती हूँ तो
महसूस होता है
तुम मुझ में खड़ी--
मुझी को निहारती हो...
माँ! तुम याद बहुत आती हो...

पता है माँ,
बच्चे को जब दुलारती हूँ,
प्यार करती हूँ,
सोए को जगाती हूँ,
रूठे को मनाती हूँ,
वही बातें मुहँ से निकलती हैं
जो तुम
मुझे कहा करती थी--
मेरे होंठों से लोरी भी तुम्हीं सुनाती हो...
माँ! तुम याद बहुत आती हो...

सुना तुमने,
मैं वैसे ही गुस्सा हुई
बच्चे पर,
जैसे तुम मुझ पर होती थी,
आवाज़ भी वही
और अंदाज़ भी वही.
कुदरत की कैसी यह लीला है?
माँ बनने के बाद,
माँ की महिमा
और भी बढ़ जाती है--
पल-पल इसका आभास कराती हो...
माँ! तुम याद बहुत आती हो...

हर माँ,
हर लड़की में बसती है,
माँ बनने के बाद वह उभरती है.
नया कुछ नहीं
किस्सा सब पुराना है
सदियों से चला आ रहा फसाना है--
इस बात को ढंग से समझाती हो...
माँ! तुम याद बहुत आती हो...

क्षण-क्षण,
बच्चे में ख़ुद को
ख़ुद में तुम को पाती हूँ,
ज़िन्दगी का अर्थ,
अर्थ से विस्तार,
विस्तार से अनन्त का
सुख पाती हूँ--
मेरे अन्तस में दर्प के फूल खिलाती हो...
माँ! तुम याद बहुत आती हो...