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माँ की याद / नंद भारद्वाज

बीत गये बरसों के साथ
अक्सर उसके बुलावों की याद आती है
याद आता है उसका भीगा हुआ आँचल
जो बादलों की तरह छाया रहता था कड़ी धूप में
रेतीले मार्गों और अधूरी उड़ानों के बीच
अब याद ही तो बची रह गई है उसके बुलावों की

बचपन के बेतरतीब दिनों में
एक साये की तरह पीछा करती थी उसकी आवाज़
और आँसुओं में भीगा उसका उदास चेहरा
अपने को बात-बात में कोसते रहने की
उसकी बरसों पुरानी बान -
वह बचाए रखती थी हमें
उन बुरे दिनों की मार से
कि ज़माने की दुश्वारियों में छूट न जाए साथ
उसकी धुंधली पड़ती दीठ से बाहर

बचपन की दहलीज के पार
हम नहीं रह पाए उसकी आँख में
गुज़ारे की तलाश में भटकते रहे यहाँ से वहाँ
और बरसों बाद जब कभी पा जाते उसका साथ
सराबोर रहते थे उसकी छाँव में

वह अनाम वत्सल छवि
अक्सर दीखती थी उदास
             बाद के बरसों में,
कहने को जैसे कुछ भी नहीं था उसके पास
न कोई शिकवा न कोई उम्मीद बकाया
फकत् देखती भर रहती थी अपलक
हमारे बेचैन चेहरों पर आते उतरते रंग!