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माँ के पास मेरा बचपन / मनोज श्रीवास्तव

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मां के पास मेरा बचपन

तुम चली गई हो कहां
छुपाकर मेरा बचपन
अपने आंचल में
और उन दुर्लभ पुचकारों में
जिनके लिए फिर से
पैदा होना होगा मुझे
तुम्हारे गर्भ से

रोक नहीं पाता हूं यह चाहना
कि तुम फिर मेरे कान उमेठ
रोको मुझे मिट्टी खाने से,
मुंडेर पर दौड़-दौड़
तितलियाँ पकड़ने से,
बरजो मुझे
विहंसती आँखों में
झूठी खिसियाहट उड़ेल--
'--कि आँगन में
मत उतरना नंगे बदन
इस झमाझम बरसात में,
--कि पापा के ज़रूरी कागज़ों से
मत बनाना नाव
और मत जाना
बरसाती नालों में बहाने उन्हें,
--कि बाहर मत निकलना
लू से बुखार चढ़ जाएगा,
--कि कनटोप बगैर मत उतरना
कड़कती ठण्ड के खुले आँगन में'

मैं थक-थक अथक गुहारूं
तुम कैसे आ पाओगी
मुझे रूठने से मनाने,
तुम्हारे बार-बार मनाने ने
मुझे रूठने का आदती बना दिया है,
सो, अब तो खुद से ही
रूठता और मनता हूं
तो भी उकता नहीं पाता हूं

तुम नहीं आती
चलकर मेरे पास
तो कौन आता है
मुझे मनाने-बहलाने,
मेरी आँखों के कोरों में
दु:ख की मात्रा नापने

तब, मैं रूठकर
बिछौनों में घुस
पलंग के नीचे छिप
या, सीढियों के पैताने दुबक
तुम्हें यातना देता था
मुझे खोजने की,
तुम किन्हीं आशंकाओं से भयातुर
मुझे बाहर तक देख आती थी,
तब भी मुझे तुम्हारी मातृ-पीड़ा
का भान नहीं होता था
पर, मैं तत्क्षण सामने प्रकट हो
तुम्हारी विराट ममता में
सिमट आता था

आह!
कैसे पाऊँ वह रुठन
जिसे तुम मुफ्त खरीद लेती थी
अपनी चुम्बन से

इस पकी उम्र में
कितनी भी कच्ची हरक़तें करूं,
खयालों पर बालपन की निकिल चढा
आयु-मार्ग पर पलटकर
कितना भी तेज दौडूं
या, धडाम से गिरकर
अपने घुटने छिलवाऊँ,
तुम नहीं आओगी
मलहम लगाने
और मेरे दर्द को
मुझसे बेहतर जानने

मां, तुम अपने स्नेह से अलगकर
लौटा दो मेरा बचपन ,
उघारे बदन मुझे
नन्हे-नन्हे हाथों से गहने,
उसकी लटकती जेबों में
गोली-कंकड़, शीशे-पत्थर
माचिस-सिगरेट के रंगीन टुकड़े भर,
उसके हाथों में मेले वाले
मिट्टी-लकडी के खिलौने थमाकर,
मैं उसे भेंट लूँगा भरपूर
और सचमुच! लौट आऊँगा
उस बालकनी में
जहां तुम चटाई पर बैठ
बिनती रहती थी स्वेटरें
और भागती धूप में
चटाई खिसका-खिसका
खिलाती रहती थी मुझे
धूप की पौष्टिक खुराक.