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माँ के हाथों की कटहल की सब्जी / शार्दुला नोगज़ा

माँ के हाथों की कटहल की सब्जी
जैसे बारिश हो धूप में हल्की
मेरे सर पे रखे जो वो आँचल
भीड़ में हाथ थाम लेते पल

मेरे आने पे वो बनाना कढ़ी
छौंकना साग और तलना बड़ी
एक लौकी से सब बना लेना
सब्जी और बर्फ़ी भी जमा देना

उसके गुस्से में प्यार का था मज़ा
कैसा बच्चों-सी देती थी वो सज़ा
उसका कहना "पापा को आने दे!"
बाद में हँस के कहना "जाने दे!"

याद आते हैं उसके हाथ सख़त
तेल मलना वो परीक्षा के वखत
वो ही कितने नरम हो जाते थे
ज़ख़्म धोते, मरहम लगाते थे

उसका ये पूछना "अच्छी तो है?"
कहना हर बात पे "बच्ची तो है!"
सुना होती है सबकी माँ ऎसी
होती धरती पे है ख़ुदा जैसी !