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माँ / खगेंद्र ठाकुर

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दुनिया का सबसे आत्मीय
और सबसे प्यारा शब्द – माँ
पहले-पहल जब होठ हिले और मिले
तब अन्तर से निकला सांस की तरह
जीवन का पहला शब्द – माँ
चेतना में घुल-मिला यह शब्द
जैसे प्राण में घुला दूध और पानी.
 
माँ से बढ़कर कुछ भी नहीं है सृष्टि में
माँ के बिना कुछ भी नहीं है सृष्टि में
माँ सबसे अच्छी होती है
जननी जब वह होती है
वही देती है हमें संज्ञा और क्रिया भी.
 
बहुत अच्छी होती है माँ
पयस्विनी जब होती है वह
अपना जीवन-रस निचोड़ कर
हमारी नसों में वह घोलती है
जब मुझसे बढ़कर नहीं होता
कुछ भी उसके लिए
मेरी तुतलाहट और मुस्कराहट पर
रहती है तत्पर वह होने को कुर्बान
 
मेरे मुंह में देखती है सारी दुनिया
और मेरी आँखों में सृजन का सपना
माँ होती है ममता की प्रतिमूर्ति
काम से लौटने पर मेरी आंतें टटोलती है
माँ होती है पूरे परिवार की आत्मा
पूरे आँगन की अक्षय चेतना
आंगन से खलिहान तक आँख बनी
 
माँ कितनी अच्छी और प्यारी माँ
कहती है – समय बहुत ख़राब हो गया
बच्चे भी जवाब देने लगे हैं
छोटे भी बड़े-बड़े शब्द बोलते हैं
कोई कहीं से आता-जाता नहीं
जोड़ने लगे हैं वे आने-जाने का खर्च
कहाँ हो सीताराम! आदमी से बड़ा
हो गया है खर्च का हिसाब!
ऐसा तो पहले नहीं होता था
इतना खराब हो गया समय कि
भगवान् भी उठते नहीं
लक्ष्मी को छोड़ कर
कहाँ गया वह समय
कैसे जिएगा आदमी!
ऐसे ही समय के फेर में पड़कर माँ
न जननी और न पयस्विनी
रह जाती है वह केवल माँ
कुछ और नहीं केवल माँ
 
माँ होती है जीवन की स्थिति
बेटा होता है जीवन की सम्भावना
जीने लगती है माँ स्मृतियों में
बेटा जीता है अपने सपनों में
स्मृतियाँ ले जाती हैं अतीत में
सपने देते हैं प्रेरणा भविष्य की
दिशाओं का यह फर्क मालूम नहीं होता
अतीत और अनागत में होता है टकराव
सोख लेता है जो समय की संवेदना
 
बुढ़ापे की लाठी होता है बेटा
बशर्ते लाठी हो माँ के हाथ में
माँ की बूढ़ी और ढीली नसें
पकड़ नहीं पातीं लाठी अपने हाथ
स्मृति और सपने चलते नहीं साथ
सोच-सोच कर माँ मूँद लेती है आँख
कांपते हुए होठों से निकलते हैं शब्द
भगवान् ने ही फेर ली जब नजर
तो समय या किसी को भी दोष दें क्यों कर?