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माँ / दिनेश चमोला ‘शैलेश’

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रात-रात जो जाग कर, देती जीवन छांव ।
माँ, वह बरगढ प्रेम का, आंचल जिसके गांव ।।1।।

सपने सारे बेच कर, गिरबी रखती भाव ।
जीवन जो परहित जिए, मां, वह शील स्वभाव ।।2।।

माँ बरगद छतनार है, नेह झूलती बेल ।
स्वारथ के पंछी करें, आंचल जिसके खेल ।।3।।

माँ बदरी केदार है, मां है चारों धम ।
मां कान्हा की बांसुरी, संध्या, प्राणायाम ।।4।।

त्याग तपस्या की रही, मां जीवंत प्रमाण ।
जिससे नित पाती रही, सकल सृष्टि थी त्राण ।।5।।

सत्य सनातन र्ध्म की, मंत्रा, साध्ना, जाप ।
अद्भुत उस व्यक्तित्व को, कौन सका है माप ।।6।।

मां ईश्वर का रूप है, मां है बाती, तेल ।
मां के कारण ही पफली, नेह, भक्ति की बेल ।।7।।

मां है तो संसार भी, लगता स्वर्ग समान ।
बिन मां के सूना लगे, जीवन महज मसान ।।8।।

मां के रहते झोपड़ी, लगती महल समान ।
बिन, महलों भी बासते, किंतु दुःखों के काग ।।9।।

मां तो जीवन प्राण है, क्या पिफर उसके बाद ।
खोया जैसे न मिला, वह बचपन का स्वाद ।।10।।

स्वारथ का संसार ये, स्वारथ के संबंध् ।
मां के जाते खो गए, नेह, सत्य के छांद ।।11।।

मां देवों की देव है, श्र(ा, शक्ति तमाम ।
आंचल में जिसके बढ़े, नानक ईशू, राम ।।12।।

जन्म अगर सौ बार लें, या पिफर बार हजार ।
लेकिन मां के नेह का, कर न सकें आभार ।।13।।

केवल वाणी ही न दी, जीवन, सत्य अपार ।
जिसने, उसका ट्टण भला, कौन सका है तार ? ।।14।।

मां ने दी यह पुस्तिका, जीवन के अध्याय ।
संस्कारों के गीत रच, करते हम स्वाध्याय ।।15।।

मां कविता की बेल है, हम सब इसके छंद ।
संस्कारों के सर्ग से, लिखते नित्य निबंध् ।।16।।

मां वह देवस्थान है, जहां गूंजते मंत्रा ।
नेह शक्ति की पीठ भी, सकल सि(ि श्रीयंत्रा ।।17।।

कविता की संजीवनी, विश्वासों का तीर ।
आंचल से जिसके झरें, श्र(ा के प्राचीन ।।18।।

मां करुणा की खान थी, संस्कारों की गीत ।
जिससे सीखा जगत ने, जीवन का संगीत ।।19।।

मां गंगा की धर थी दया, नेह तटबंध् ।
ठूंस-ठूंस जिसने गढ़े, कर्म र्ध्म के छंद ।।20।।