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मां और कविता / मनोज श्रीवास्तव

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मां और कविता


--एक--
झर-झर झर सकती है कविता
अनन्त और अथाह तक,
भर सकती है सागर-महासागर,
डुबो सकती है
स्वयं में सारा ब्रह्माण्ड,
किन्तु बहुत थोडी रह जाएगी
मां के आंसुओं के सामने

--दो--
भावनाओं की बाढ बांध सकती है,
स्नेह और आसक्ति की
अविरल बरसात ला सकती है,
अमन और दोस्ती का
परचम लहरा सकती है,
हां, शायद मिटा सकती है कविता
देशों और दिशाओं के सारे भेद,
पर, बेशक! ठिगनी नज़र आएगी
ममता के सामने
 
--तीन--
अपने आंचल में
विश्व-साहित्य समेट सकती है,
भाषाओं की घुडसवारी कर
असीम कल्पनाएं छू सकती है,
शब्दकोशों को अपना अनुचर बना सकती है,
वैचारिक सीमाएं लांघ सकती है
और फलांग सकती है--
सुर, ताल और लय,
लेकिन, कविता अबोध बालिका ही रहेगी
जब मां की अंगुलियां थाम
वह गली-चौबारे
पार किया करेगी

--चार--
बहुत खुश हो सकती है कविता,
अपने ठहाकों और कहकहों से
दर्द का इतिहास धुंधला सकती है,
अपने अट्टहास से
अविच्छिन्न वसन्त ला सकती है,
पर, मां के मुस्कराते ही
वह सिर झुका,
उसके कदमों से लिपट जाएगी

--पांच--
वह रिझा-लुभा सकती है
राजाओं और शहंशाहों को,
अपने लालित्य का
दीवाना बना सकती है उनको,
अपनी ठुमुकन से
मोल सकती है तख्तो-ताज़,
हां, करिश्मा कर सकता है
उसका अपराजेय सौन्दर्य,
जो मां की दमक के सामने
तत्क्षण फीका पड जाएगा

--छ:--
अरे! बेज़ुबां कविता !
तुम कैसे गा सकोगी मां को,
इतनी अल्हड-अनगढ हो
कि सीख भी नहीं पाओगी
उससे शिष्टाचार के सबक,
इतनी रूक्ष और शुष्क हो
कि सलीके से
दुलार भी न सकोगी हमको,
इतनी बांझ हो
कि जन नहीं सकोगी
एक ऐसी दुनिया

--सात--
हां!
मां ने मुझे जना है
और मैने तुमको,
सो, तुम मां की दोगुनी ऋणी हो!