भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

माटी का प्यार अमोल रे / राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

माटी का प्यार अमोल रे
सरग नरक को छोड़-छाड़ कर
माटी के संग डोल रे।
पागल तू दिन-रात ध्यान में
सोचा करता इस-उस जग की
कर्म फांस माया-बंधन की
बुद्धिवाद प्रगति के मग की
अरे, उठ मिट्टी से भेंट कि इसमें
जीवित उर के बोल रे।
माटी का प्यार अमोल रे।

मटमैला धूसर-सा तन हो
माथे पर मेहनत का पानी
मस्ती के संग जीना मरना
धरती अपनी अमर जवानी
ओ, जनवादी बन श्रमजीवी
अग-जग में समरस घोल रे।
माटी का प्यार अमोल रे।

माटी ही इतिहास गढ़ेगा
माटी जीवन भाग्य विधाता
धूल भरा इंसान जगत का
माटी स्वर्मिम विश्व बनाता
कुदरत की भाषा पढ़-पढ़कर
कर ले प्रेम कलोल रे।
माटी का प्यार अमोल रे।