भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

माटी कोरे गेल छिनरो, पार गंगा हे / मगही

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मगही लोकगीत   ♦   रचनाकार: अज्ञात

माटी कोरे<ref>कोढ़ने, खनने</ref> गेल छिनरो<ref>छिनाल, छिन्ना$नारी</ref> पार गंगा हे।
गजनवटा<ref>स्त्री की पहनी हुई साड़ी के नीचे का भाग</ref> में चोरवले<ref>चुराकर</ref> आयल सोरह गो<ref>संख्या, अदद</ref> भतार हे॥1॥
घर के भतार पूछे, कवन-कवन जात<ref>जाति</ref> हे।
चार गो त जोलहा-धुनिया, चार राजपूत हे॥2॥
चार गो त मुसहर<ref>चूहा मारकर खाने वाली निम्न जाति, मूषकहर अथवा मूषहर</ref> बड़ मजगूत<ref>मजबूत</ref> हे।
भले<ref>अच्छा, खूब</ref> छिनरो, भले कोरे<ref>मिट्टी। कोड़ने</ref> गेल<ref>गई</ref> हे॥3॥

शब्दार्थ
<references/>