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माटी से / कुमार वीरेन्द्र

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 वह घाम उगते
आँगन में, खटिया पर चपोता बिछा
सुला दी जाती, रेगनी पर लाल कपड़ा, हिलते देख, गोड़-हाथ फेंक
ख़ूब खेलती, मैं भी झुनझुना बजा-बजा ख़ूब खेलाता, गुदगुदाता तो
खिलखिलाने लगती, लेकिन जाने कइसे तो पड़ी बीमार
एक दिन, कितना भी बजाता रहा झुनझुना
हिली-डुली नहीं, गुदगुदाता
तब भी नहीं

देखा कि माई, चाची
आजी रो रही हैं, पड़ोस की औरतें भी, भीगते
चुप करा रहीं, कुछ पूछता तो कोई बोलता नहीं, बस सर पे हाथ रख सटा लेेता, आजी
से पूछा, 'ई काहे नाहीं जाग रही, देखो घाम भी हो गया कतना, अउर तुम सब, रो काहे
रही हो ?', आजी ने गोदी में भर लिया, लेकिन बोली नहीं, कुुुछ देर बाद देखा
बाबूजी संग कुुुछ लोग, उसे गमछी में लपेट, ले जाने लगे, तो घर
की औरतें और ज़ोरों सेे रोने लगीं, मैं काठ बना
रहा, कि समझ ही नहीं पा रहा था
हो क्या रहा है

ऊ तो फुआ ने बताया, 'बबिया
मू गई, अब कबहुँ नाहीं आएगी', तबहुँ मरना क्या होता, नहीं
जानता था, लेकिन 'कबहुँ नाहीं आएगी', ई बात ने बिछोह में डाल दिया, कि माई तो रोज़ कहती
'बबिया को खेलाओ, एक दिन भइया कहेगी, राखी बाँधेगी', अब जो टूट-फूट पड़ा, दौड़ते आजी
से जा लिपटा, पूछा, 'बबिया को कहाँ ले जा रहे सब, का हुआ', तब मुँह पर लूगा रखे गोद
में पकड़े रही, फिर पता नहीं क्या सोचा, नदी किनारे खंटानारी तरफ़ चुपके
निकल पड़ा, दूर ही था कि सब दिखे, झाड़ी पीछे लुका गया
देखा, गड़हा खोदा जा रहा, जिसमें बबिया
को गँवे, सुला दिया गया

बाबूजी, छोटा बाबूजी को
भीगते देख, मैं हहर उठा, कि आख़िर ई सब हो क्या रहा, जब
नदी नहा सब चले गए, गया और भरे गड्ढे पर हाथ थपथपाने लगा, 'बबिया उठ, बबिया...', लेकिन
काहे को, कि तब तक, एगो साधु बाबा, बाँध पर जाते दिखे, सुना था साधु भगवान होते हैं, दौड़ के
गया, 'साधु बाबा, साधु बाबा, बबिया को जगा दो, साधु बाबा...', लेकिन सुने न रुके, तनिको
समझ नहीं पा रहा था, क्या करूँ कि ऐसा कैसे हो सकता है, 'नाहीं जागेगी'
झुनझुना बजा पाऊँगा न गुदगुदा पाऊँगा, माई के भगवान
लोगों से भी कहा, लेकिन बबिया नहीं जगी
तब सोचा, माटी हटाता हूँ

फिर उठाऊँगा, और हटाने
लगा कि पाछे फुआ आ खड़ी हुई, 'बउआ, इहाँ हो
ई का कर रहे हो, चलो घर, कहँवा-कहँवा ढूँढ़ रहे हम, बउराह हो का', जब ज़िद पर
आ गया, साथ लेकर ही जाऊँगा, फुआ ने एक चटकन मारा और मुझसे ज़्यादा रोने
लगी, रात आजी सुलाने की भरसक कोशिश करती रही, पर नींद थी कि
आ ही नहीं रही थी, पूछ बैैैठा, 'आजी, मैंने देखा, गड़हे में
बबिया को सुता, माटी से भर दिए सब लोग
अब तो साँचो कबहुँ नाहीं
आएगी न

माटी से काहे
भर दिए, माटी से काहे ?', आजी
का करती, आजी तो आजी, कितना भी पूछो जल्दी खिसियाती
नहीं, मेरे हर सवाल पर, सुबेेेरे से चुप थी, अब जाकर मुँह खोला
खोला भी तो, बस इतना ही कह पाई, 'बेटा, इसलिए
माटी से भर दी गई, माटी से...कि रूख
बिरिछ तो बन नाहीं सकी
कम से कम

दूब तो बन सके...!