भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मातम-1 / ये लहरें घेर लेती हैं / मधु शर्मा

Kavita Kosh से
Jangveer Singh (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:26, 24 जनवरी 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मधु शर्मा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


जार जार वे रोती हैं
थामे हुए माथा
कि वे जेसी हैं जहाँ हैं वहाँ से
और न गिरें

रोने से ही तब
भर जायेगा उनका पेट
वे उठेंगी रोक कर थोड़ा-सा रुदन
पानी पी आने
या किसी और बहाने वे लेंगी साँस
इसी घुटती रुलाई से

घर की छोटी-मोटी चीज़ों में
वे उठायेंगी और धर देंगी
जनम-भर का विलाप

फिर चीज़ों को धोने
और पोंछ देने मंे लगीं वे
रोने को भी धोने और पोंछ देने में
लगी रहेंगी शिद्दत से
जिनसे अक्सर ही हुआ करेगा
उनका मन मैला
बस्स्, यूँ ही!