Last modified on 8 जून 2016, at 09:29

मातृत्व / अनुराधा महापात्र

क्रमशः जमने लगती है विस्मृति
क्रमशः झर जाते हैं सारे पंख
क्रमशः हंस भी अकेला विसर्जन के लिए जाता है
क्रमशः भूखे की रिक्तता
एकमात्र सत्य मालूम होती है
क्रमशः मैं छिन्नमस्ता रूप को
ब्रह्माण्ड के अस्तित्व का पहला और अन्तिम
जीवन्त स्वरूप मानने लगती हूँ
क्रमशः यह घना अन्धकार
यह निष्ठुर शून्यता
मातृत्व बन जाते हैं।

मूल बँगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी