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मानव धर्म / उर्मिल सत्यभूषण

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मानस जात सब इक है, मानव सभी समान
एक नूर से ऊपजे, भूल गया इन्सान

गाँव शहर जंगल मये, जंगल हैं वीरान
कौन पशु कौन आदमी, कहाँ रहीं पहचान

बाज झपट्टा मारकर नफ़रत का, बलवान
कोमल चिड़िया प्यार की, कर गया लहुलुहान

जहर हवा ने पी लिया, घुटती है अब सांस
पानी से कैसे बुझे खूनी हो जब प्यास

मात-पिता के प्यार का बिखर गया परिवार
घर आंगन सब बंट गये, कितनी उठी दीवार

जात-पात, भाषा धर्म रंगभेद के तीर
मानवता के जिस्म को सतत रहे हैं वीर

मानव कितना मूढ़ है, बुनता मक्कड़ जाल
शीशमहल में बैठकर, पत्थर रहा उछाल

मंदिर मस्जिद लड़ पड़े, जख्मी करम, करीम
रुसवा ‘उसके द्वार पर होते राम रहीम

वक्त के पांव में गड़ी, जंग लगी इक कील
फैल गया है हर तरफ, ज़हरवाद का नील

लाओ वैद हकीम को, चारागर बुलाओ
मानव धर्म बीमार है, इसको तो बचाओ।

काबू रखना क्रोध पर सर पर न चढ़ जाये
मन मुटाव पैदा करे, रक्तचाप बढ़ जाये

ज़हर उगलने को जगह, जो तू उसे पचाये
कालकूट फिर क्रोध का, अमृत में ढल जाये

शब्द कभी मरहम बने, कभी बने वो तीर
जिसके अंदर धंस गये, गये कलेजा चीर

साधू संत महात्मा, गये क्रोध में हार
इस अवगुण के सामने सारे गुण बेकार

उफ़न गया दूध सब, आया जब उफान
चूक ज़रा सी ही करे, सर्वनाश, तूफान

दान क्षमा दीजिये भूल चूक सब भूल
पीर न फिर देंगे कभी उन भूलों के शूल

क्षमाशील होकर अगर दे दो तुम आशीष
झुक जायेंगे आप ही, तने गर्व से शीश

अरि को मित्र बनाना भी हो जाता आसान
उसकी झोली में अगर भरो क्षमा का दान

क्षमाशील हो खोलिये अपने घर के द्वार
स्नेही मन से कीजिये, दुश्मन का सत्कार

क्षमाशील हो मांगना, रे मन! सब की खै़र
छोटों के सिर परसना और बड़ों के पैर

नैतिक मूल्यों की लगी हार बड़े बाज़ार
लुट गये भरे बाज़ार में, ये अमोल उपहार

सच्चाई सिर धुन रही बेबस और लाचार
आज चुनौती है उसे झूठ की जय जयकार

सदाचार का आड़ में पनपा व्यभिचार
भ्रष्टाचार के किले कल होंगे लाचार

धर्म, अर्थ और काम हैं, जीवन के आधार
बिना मोक्ष आधार के हिल जाये संसार

नफरत की इस आग में जल न मरे संसार
बरसा दो निज प्यार की शीतल सी जलधार

इच्छाओं की बाढ़ ये, कुदरत को गई लील
कंकरीट के जंगलों में करती तब्दील

नाश अपना देखेगा पहले यह संसार
आयेगा फिर युग नया, हैं ऐसे आसार