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माना, मेरा मुह सी दोगे, उसकी जीभ कतर दोगे / विनय कुमार

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माना, मेरा मुह सी दोगे, उसकी जीभ कतर दोगे।
पर अपनी बड़बोली आँखों को कैसे चुप कर दोगे।

पत्थरबाज़ी से नफ़रत है लेकिन मुझको आती है,
उतने तो लौटा ही दूँगा जितने तुम पत्थर दोगे।

लड़नेवालों को बंकर, मर जानेवालों को क़ब्रें
खुद को क्या दोगे जब हथियारों को अपना घर दोगे।

अंधा मूसल, हाथ मशीनी, उल्टा स्विच, शातिर ऊँगली
ऊखल में चांदी के चावल, लालच में तुम सर दोगे।

एक तरफ़ से धन्वन्तरि, दूसरी तरफ़ से तक्षक हो
काट ज़हर का दोगे तुम हँसकर, लेकिन डँसकर दोगे।

बेटी जैसी गोरैया को तुम से यह उम्मीद न थी
पिंजरे के बाहर, ऊपर अम्बर नीचे सागर दोगे।

रच डाला है कैसा रिश्तों का बागीचा कागज़ पर
ओ लिखनेवाले, बोलो, कितने में यह मंज़र दोगे।