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माला / रघुवीर सहाय

प्रतिदिन एक विछोह हुआ है
प्रतिदिन मैंने मोह किया
वन-उपवन में जो कुछ पाया
जयमाला में पोह दिया

अनगढ़ है पर सुन्दर है यह
मेरे मन का संचय है
फूल विवश मुरझा जाएँ
पर धागा ? वह मृत्युंजय है

गुँथी रहेगी माला, चाहे
जग सौरभ से भर न सके
जीवन की जय हो, यह जन
यह रण चाहे जय कर न सके ।