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<poem>
माली कैसे सह पाता है
अपने धन्धे का जंजाल
तू ही हर बगिया का पालक
तू ही सब कलियों का काल
पत्थर की मूरत की खातिर
कली बिचारी जाँ से जाती
डाली रोती फूट-फूटकर
फिर भी दया न तुझको आती
 
इतने दुख देकर बगिया को
होता तुझको नहीं मलाल
 
कितना कोमल कली-हृदय है
तूने कभी नहीं सोचा
कितनी कलिकाओं को तूने
भरी जवानी में नोंचा
 
ना देखी पौधों की तड़पन
ना देखा भँवरों का हाल
 
कैसे तू निश्चित करता है
कौन कली खिलने देनी है
तोड़ किसे प्रातः ही तुझको
गूँथ नई माला लेनी है
 
कहीं नियम कुछ बना रखे या
सब तेरे पाँसों का जाल
</poem>
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