भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मिथकों से घिरे / निर्मला गर्ग

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
मेरी तरफ दौड़ा आ रहा समुद्र
पता नहीं कौन-सी सूचनाएँ देना चाहता है
कथा कहना चाहता है शायद जगन्नाथ की
सुभद्रा की और बलराम की
वह कथा नहीं जो मिलती है काउंटर पर रखी पुस्तिका में

मंदिर से निकलकर जगन्नाथ सुभद्रा बलराम
आकर बैठते हैं समुद्र के पास
नहीं चाहिए हमें छप्पन भोग वह भी दिन में पाँच बार
हमारे सपनों में आती है काला हांडी
भूख की ज्वाला में लिपटी
पत्तियाँ, ज़हरीली गुठलियाँ पीसकर खाते
स्त्री-पुरुष बच्चे
हम कहाँ तक सहन करें
पुरोहितों को नहीं पता कि हम भात का एक दाना भी नहीं खा पाते
मिठाई का दोना खिसका देते हैं पूरा का पूरा
तुम्हीं कहो समुद्र / कहो कवि से कहो कथाकार से/
कहो समस्त चराचर से
हम किससे कहें कि अवश हैं हम
मिथकों से घिरे |

                   
रचनाकाल : 2006