भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मिरे बदन में छुपी आग को हवा देगा / बशीर फ़ारूक़ी
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:25, 5 नवम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बशीर फ़ारूक़ी }} {{KKCatGhazal}} <poem> मिरे बदन ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
मिरे बदन में छुपी आग को हवा देगा
वो जिस्म फूल है लेकिन मुझे जला देगा
तुम्हारे मेहरबाँ हाथों को मेरे शाने से
मुझे गुमाँ भी न था वक़्त यूँ हटा देगा
है और कौन मिरे घर में ये सवाल न कर
मिरा जवाब तिरा रंग-ए-रूख़ उड़ा देगा
चले भी आओ कि ये डूबता हुआ सूरज
चराग़ जलने से पहले मुझे बुझा देगा
खड़े हुए हैं यहाँ तो बुलंद-हिम्मत लोग
थके हुओं को भला कौन रास्ता देगा
दरों को बंद करो वर्ना आँधियों का ये ज़ोर
तुम्हारे कच्चे घरों की छतें उड़ा देगा
जहाँ सब अपने ही दामन को देखते हों ‘बशीर’
उस अंजुमन में भला कौन किस को क्या देगा