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मिला राह वो कि फ़रार का न पता चला / ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

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मिला राह वो कि फ़रार का न पता चला
उड़ा संग से तो शरार का न पता चला

जो खिंचे खिंचे मुझे लग रहे थे यहाँ वहाँ
किसी एक ऐसे हिसार का न पता चला

रहा जाते जाते न देख सकने का ग़म हमें
वो ग़ुबार उठा कि सवार का न पता चला

रही हिज्र में जो इक इक पल की ख़बर मुझे
तो विसाल में शब-ए-तार का न पता चला

कई मौसमों से तलाश में है मिरी नज़र
किसी गुलसिताँ से बहार का न पता चला