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मिस्मार हूँ कि ख़ुद को उठाने लगा था मैं / शहाब सफ़दर

मिस्मार हूँ कि ख़ुद को उठाने लगा था मैं
मिट्टी से आसमान बनाने लगा था मैं

बे-इख़्तियार आँखों में आँसू निकल पड़े
तस्वीर से ग़ुबार हटाने लगा था मैं

आवाज़ दे के रोक लिया उस ने जिस घड़ी
मायूस हो के लौट के जाने लगा था मैं

भटका ज़रा जो ध्यान मिरे हाथ जल गए
बोसिदा काग़ज़ात जलाने लगा था मैं

अफसोस ख़्वाब-ए-मर्ग ने मोहलत न दी ‘शहाब’
सोया हुआ नसीब जगाने लगा था मैं