मीठी-मीठी बातों से वो कानों में रस घोल गए।
वज्ह से जिसकी चलते-चलते हम रस्ते से डोल गए।
बात तो वाजिब थी वो लेकिन उस को कहा था तल्ख़ी से,
सुनने वाले सुन न सके पर तुम तो आख़िर बोल गए।
अफ़सुर्दा बातें करना तो सब को आए दुनिया में,
हम कितने पानी में रहते वो आँखों से तोल गए।
हार गए जब बाज़ी अपनी खेल समझ में तब आया,
लेकिन वो उम्मीद जगाकर ज़हन हमारा खोल गए।
‘नूर’ हकीक़त से वाक़िफ़ क्या ये दुनिया हो पाएगी?
जाते-जाते भी कुछ लम्हे ये कहकर अनमोल गए।