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मीत! मन से मन मिला तू और स्वर से स्वर मिला / हरिराज सिंह 'नूर'

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मीत! मन से मन मिला तू और स्वर से स्वर मिला।
धड़कनों को प्रीत की झंकार से बेहतर मिला।

गंध तेरी फैल जाए सब दिशाओं में यहाँ,
ऐ गुलेतर इसलिए तुझको हसीं अवसर मिला।

रौशनी की खोज में घर से निकल आए थे वो,
यास का गहरा अँधेरा उनको क्यों दर दर मिला।
 
बादलों के पार खोजे जब प्रभाकर के नुक़ूश,
आसमां में कुछ न पाया शून्यता का घर मिला।

हौसले भरकर चले जो मिल गई मंजिल उन्हें,
जो भी डर-डर कर चले उनको सफ़र में डर मिला।

हर किसी से एक जैसा प्रश्न दुहराए समय,
जिस बशर ने घर बनाया क्यों वही बेघर मिला।

यूँ बहुत कुछ ज़िन्दगी में ‘नूर’ ने पाया मगर,
प्यार से जो कुछ मिला संसार में दूभर मिला