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मुँह में अँगुरी देहऽ तऽ बोलऽ हो / सिलसिला / रणजीत दुधु

मुँह में अँगुरी देहऽ तऽ बोलऽ ही,
अपन मुँह के हम खोलऽ ही॥

ताना रोज मारे हे राही,
की कहियो कतना हे डाही,
चार हजरिया धर देलक हे नाम,
की कहियो कतना पछताही,
अन्हरा से भी बत्तर ही,
आँख रहते राह टटोलऽ ही,
मुँह में अँगुरी देहऽ तऽ बोलऽ ही॥

मास्टर से दोगुना चपरासी के दरमाहा,
जे चौगुना पावऽ हथ उहो सनकाहा,
ऊपर से मुखिया जी माँगऽ हका घूस
हम तो बन गेलूँ हऽ एकदम बउराहा,
नियन बेतन पावे ले ग्रामसेवक के
आगे पीछे कुत्ता नियन डोलऽ ही
मुँह में अँगुरी देहऽ तऽ बोलऽ ही॥

ई मुड़ली माँग में सेनूर हे
लोग कहे घमंड में चूर हे
साँप-छुछुन्दर सन हालत हे
जिनगी मउगत दुन्नू दूर हे
सल्फास के गोली सन बोली
के रोजे मुँह में घोलऽ ही
मुँह में अँगुरी देहऽ तऽ बोलऽ ही॥

जेकरा से हमरा पड़लय पाला,
ओकर हाथ में हे विष के हाला,
इसकुल में लटक जयतो ताला,
निम्मक आउ चिन्नी मिलल हे
न´् निकले हे कतनो ओलऽ ही,
मुँह में अँगुरी देहऽ तऽ बोलऽ ही॥

ऊपर से भोजन आफत हे
मास्टर मास्टरनी ले शामत हे
अभिभावक से ले के अफसर तक
सभे ले इहे एगो हजामत हे
तों निशा में भकुआल हका
हम तोरा पकड़के झोलऽ ही
मुँह में अँगुरी देहऽ तऽ बोलऽ ही॥

इन्द्रधनुष जब उगतय सतरंगी
न´ चलतय ई नीति दुरंगी
अब तार के लादे मत तानऽ
न´ तो न´ बजतो ई सांरगी
केकरो छठा बेतन से फुसलाबऽ हऽ
हम नियत वेतन ले डोलऽ ही,
मुँह में अँगुरी देहऽ तऽ बोलऽ ही॥