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मुंबई के बाद / प्रियदर्शन

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मुंबई पर हुए हमले के बाद क्या है मेरी प्रतिक्रिया ?
किसी और ने नहीं, ये सवाल ख़ुद अपने-आप से मैंने किया ।
और अपने को टटोलने की कोशिश की,
वहाँ कुछ हमदर्दी थी, कुछ अफ़सोस, कुछ डर और कुछ गुस्सा
इन सबसे ज़्यादा थी लेकिन हैरानी
कि आख़िर किस पेशेवर ठंडेपन से मार डाले गए इतने सारे लोग ।

चाहता तो आत्मदया में डूब सकता था,
कल्पना करते हुए कि मेरे शहर, मेरी सड़क, मेरी दुकान, मेरे घर तक
पहुँच आया ये आतंकवाद
किसी दिन मुझे ही रक्तरंजित न कर डाले ।
उससे भी आसानी से ईमानदार होने का ढोंग करते हुए
बता सकता था, मेरे भीतर कुछ नहीं टूटा
मेरा जीवन पहले की तरह चलता रहा है ।

वैसे कुछ सच इन दोनों बातों में भी है
अपने बचे होने की तसल्ली और एक दिन अपने मारे जाने की दहशत
शायद कहीं मेरे भीतर भी हो
और उससे भी ज़्यादा राहत
कि अभी मैं बचा हुआ हूँ
हँसता-खिलखिलाता,
आतंकवाद पर अफ़सोस करता
अपनी व्यवस्था की नाकामी पर झुँझलाता
अपने नेताओं को ग़ाली देता
अपने सुरक्षा बलों पर नाज़ करता ।

लेकिन क्या करूँ मुंबई का,
जो मेरे भीतर ग़म और गुस्सा तो जगाती है
वह छलछलाती हुई रुलाई पैदा नहीं करती
जिसमें सब कुछ बह जाए ।
कभी कोई चोट खाई, सिहराती हुई कहानी आ जाती है
तो कुछ पल के लिए रोंगटे ज़रूर खड़े हो जाते हैं
लेकिन वह स्थायी दुख नहीं जागता जो मेरा सोना-जीना खाना-पीना हराम कर दे ।

तो क्या मेरी मनुष्यता में है कुछ खोट ?
कि सुनाई नहीं देती या फिर देर तक नहीं टिकती कोई चोट ?
या मैं ख़ुद घायल हूँ
अपने अनजाने ज़ख़्मों को सहलाता, उनके साथ जीने की आदत डालता
अपने-आप में बंद
दूसरों की चोट से निस्पंद ?

या फिर इस लहूलुहान दुनिया में हर तरफ़ इतनी हिंसा है,
इतनी दहशत है, तार-तार होती मनुष्यता के इतने सारे प्रमाण हैं
कि मुंबई की दहशत अपनी विराटता में तो डराती है
अपना दारुणता में झकझोरती नहीं ?

या फिर जाने-अनजाने एक हिंसा का मैं भी शिकार हूँ
वह हिंसा जो बड़ी सूक्ष्म होती है
जिसमें न हथगोले दिखते हैं न धमाके होते हैं,
बस कुछ कुतरता चलता है हमारी आत्माओं को, हमारे विश्वासों को
हमें सिर्फ़ देह में और संदेह में बदलता
जिसका मुझे पता नहीं चलता ।
और फिर शिकार ही नहीं, हो सकता है, इस हिंसा का साझेदार होऊँ
इसीलिए मुंबई मुझे डराती भी है तो दूसरी तरह से
वह मेरे भीतर नई हिंसा भरती है, प्रतिशोध की कामना भरती है,
फिर मैं भी खोजने लगता हूँ निशाने
उसी खेल में शामिल हो जाता हूँ जाने-अनजाने
हो सकता है
आप सबको यह एक कवि का बेमानी विलाप लगे
लेकिन मैं चाहता हूँ, मुंबई से मेरे भीतर गुस्सा नहीं करुणा जगे ।
क्योंकि जैसे हर ओर आतंक है, वैसे ही हर ओर मुंबई है
और यह एक ज़्यादा बड़ी लड़ाई है जिसका वास्ता सिर्फ़ सीमा पार के प्रायोजित आतंकवाद से नहीं है
बल्कि सत्ताओं के दुष्चक्र और सरहदों के झूठ और समुदायों के पार जाकर
यह समझने की ज़रूरत से है कि क्या ग़लत है क्या सही है ।