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मुक़द्दर ने मुसलसल ग़म दिए हैं।
मगर हम शान से फिर भी जिए हैं।
परस्तारे-वफ़ा होकर भी हारे,
सर अपना ख़म इसी से हम किए हैं।
 
हवा ने छीन ली हम से बुलंदी,
ये पस्ती, जिससे हम यारी किए हैं।
 
सज़ा को काट लें अब हम ख़ुशी से,
लबों को इसलिए अपने सिए हैं।
 
ज़माने में वफ़ा नकली मिलेगी,
पता है जिनको, वो आँसू पिए हैं।
 
हवा-ए-तेज़ में जलना कठिन है,
मगर वो अज़्मे-मुहकम के दिए हैं।
 
अभी दिल ‘नूर’ का टूटा नहीं है,
ग़मों की अंजुमन ख़ुद में लिए हैं।
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