Last modified on 12 मई 2018, at 12:12

मुक्तक संग्रह-2 / विशाल समर्पित

सीढियाँ नेह की चढ़ नही पाए तुम
आँख से आँख को पढ़ नही पाए तुम
मैं अकेला ही दुनियाँ से लड़ता रहा
चंद अपनो से भी लड़ नही पाए तुम

दूर रहता सदा पास आता नहीं
गैर आते मगर ख़ास आता नहीं
जब से देखा उसे मैंने सच मानिए
आँख को कोई भी रास आता नहीं

रोक तुमको कोई भी शहर न सके
प्रेम की फिर पताका फहर न सके
जाते जाते ह्रदय तोड़ कर जाओ तुम
ताकि आकर कोई फिर ठहर न सके

भाग्य मुझसे कभी रूठता ही नहीं
साथ उनका कभी छूटता ही नहीं
टूटता है तो केवल ह्रदय टूटता
कोई वादा कभी टूटता ही नहीं

नेह का संचरण आज बाधित हुआ
हो गया है अहित या मेरा हित हुआ
पहले सबने कहा तुम समर्पण करो
जब समर्पण किया तो उपेक्षित हुआ