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मुक्तिबोध / प्रदीप जिलवाने

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उसे लगता था जिंदगी पहाड़ है
शायद इसीलिए उसने पहाड़ी रास्तों-से
दुर्गम और दुरूह भाषा शब्दों को चुना
और एक नये रास्ते पर बढ़ता चला गया।

अपनी बीड़ी के हर कश और गहराते धुंए में
वह कभी अपनी ही परछाई से डर जाता था
तो कभी अपना ही आगत या विगत देखता था
बार-बार बदलता रहा पेशा
कभी शहर रास नहीं आता तो कभी काम
अनिश्‍चय के अंधकार में तलाशता रहा सही मार्ग
फिर तय किया ‘जो भी मिले वही श्रेयस्कर है,
बस माहवार ठीक-ठाक हो’
मगर फिर भी नहीं बन पाया वह ‘व्यक्तित्व का गुलाम’
वह बीमार-चरित्र नहीं रच पाया
उसने सभ्यता-संकट के आतंक का चेहरा
प्रत्येक हिन्दुस्तानी के चेहरे पर चस्पा पाया।

उसने महसूस कर लिया था
युग के घटते हुए कद को
परख लिया था अपने समय को
महज कोरी कल्पनाएँ नहीं थी उसकी चिंताएँ
भविष्य के प्रति एक कवि की जवाबदेही थी
और वह यह खूब समझता था
तभी तो उसे लगा ‘चाँद का मुँह टेड़ा है’
उसके लिए कविता अकेले आदमी की पीड़ा का प्रलाप नहीं थी
‘विकट परिस्थितियों में उत्तमोत्तम मार्ग तलाशने
और किसी अनघड़ पत्थर को तराशने की कला थी’।

वह हमारे लिए अँधेरे के रहस्य खोजता था
और उतरते चले जाता था
किसी अन्धे कुएँ की अतल गहराइयों में
कभी उसका विश्‍वास डगमगाता था
व्यवस्था तंत्र पर
तो कभी वह अपनी ही अदम्य जिजीविषा से उसे
बल देने का भरसक यत्न करता था
(जैसे किसी खटारा गाड़ी को धक्का देकर
स्टार्ट करने की रोज की हेडेक)
कई बार वह मामूली से उजाले में दर्पण देखता
किसी अपरिचित भय के साथ

उसे लगता उसका चेहरा भयावह
और भयावह होता जा रहा है
उसके व्यक्तित्व की बनावट में खराबी आ गई है
उसके विचारों में वह पैनापन नहीं रहा
आंदोलन कहीं फीका पड़ गया है
और इसी क्रम में वह अपनी कोई भी रचना
पूरी कने से पहले ही शंकाओं में घिर जाता
तरह-तरह की शंकाएँ
और अधूरी रह जाती उसकी इच्छा की कविता
जैसे उसका अपना जीवन ......
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