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मुक्ति-पथ / भारतेन्दु प्रताप सिंह

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हर सुबह लौट आता है सूरज,
अपने माथे पर लगाए लाल-गुलाल
और थाम लेता है लहराता आँचल, बीतती रात का,
हर शाम देर-सबेर लौट आता है
सैलानी मनचला चांद और
थाम लेता है धरती का हाथ, सपनों की चाँदनी में
दौड़ता दुधिया बादलों के बीच,
तभी तो सूरज और चांद - इन दोनों को,
समझाती-बुझाती है धरती बार-बार, बारम्बार,
कहां दौड़ते हो हर रात-हर दिन,
अनजानी राह अनजाने देश ?
क्या चाहते हो,
इस विराट शून्य से,
जरा ठहरो तो सही,
बता दो सिर्फ एक बार
एक बार तो बता दो-
क्या? और कहां? !

सूरज ने कहा था - तुम मेरी पत्नी हो, अर्द्धांगिनी हो,
लो इसलिए बताता हूँ
मेरे लिए यह एक प्रश्न है
परिदृश्य का –
मैं तोड़ देना चाहता हूं सौर-मंडल की
प्राचीनता, समरूपता और एकरसता,
इस सिस्टम का ठहराव,
इसमें दम घुटता है सबका,
कुछ भी नहीं है
जो नया हो, जो सार्थक हो
सब कुछ ठहर गया है, सब कुछ जर्जर हो गया है॥
सूरज की अराजक परिवर्तन की चाह
अर्थहीन असंतोष को कारण
सीमा से परे एक आस्था थी – आत्महंता,
जिसको पाने या करने की शर्त होगी – प्रलय, ध्वंस,
धरती को मालूम था जब भी, सूरज बदलेगा
ना रहेगा सौरमंडल, धरती या चाँद
ना जाड़ा ना गर्मी ना बरसात,
फिर कैसा चाहिए उसे संपूर्ण परिवर्तन, के लिए परिवर्तन
ऋतुओं से परे, सृष्टि से परे,
क्योंकि सूरज सृष्टा नहीं जो बदल सके
परिदृश्य, वह तो खुद ही सृष्टि है॥ 1 ॥

धरती ने कहा था, प्रिय!
तुम तो हर दिन देखते हो हर रात जाते हो
कहां-कहां कितनी-कितनी दूर
कभी दिखे अगर सृष्टा, तो होना नतमस्तक
मेरी तरफ से भी, बार-बार बारम्बार
जिसने मुझे तुम्हें दिया-
ताकि मैं तुम्हारी परिक्रमा करती रहूँ
ताकि मैं पाल सकूं, पोषण कर सकूँ
हर एक जीव, एक-एक पेड़ पौधे
जो मेरी ही मिट्टी में फलते फूलते
जीते मरते हैं, जो मेरे अपने हैं॥ 2 ॥

चांद ने कहा था, हे प्रिये,
चेतन हूँ, क्या करूँ, मेरी प्रकृति है,
सो लो बताता हूं, मेरे लिए यह एक सवाल है-
परिप्रेक्ष्य का –
मन भटकता है, बासी सच नहीं भाता,
तो नया अर्थ ढूंढने,
अनजान को जानने और सृष्टि को,
पहचानने की कोशिश में
परिप्रेक्ष्य–बदलने पड़ते हैं, – बदलता हूं, तभी तो, –
गोकि नहीं बदल सकता मैं अपना परिपथ –
न चमक सकता हूं दिन में, सो, खुद ही लुका छिपी करते,
अपनी ही दृष्टि बदलते, देखता हूँ तुम्हें,
आकाश के कभी इस दिशा में कभी उस कोने से
कभी शाम से ही या कभी आधी रात के बाद,।
पर सच मानों, परिप्रेक्ष्य बदलते हुए,
तुम्हारे बदले स्वरूप, यानी
रात में चमकती तुम्हारी श्यामल आंखें
और फैले काले बाल,
या सुबह होते दिखते तुम्हारे सौन्दर्य की सूर्ख आभा,
इन सब में भी मुझे एक शाश्वत का आभास होता है-
उसी को समझने, उसे ही देखने,
मैं दौड़ता हूं हर दिन प्रतिदिन॥ 3 ॥

चांद की जिज्ञासा स्वाभाविक थी,
पर वह कैसे देख सकता है, अपने को,
अपने परिप्रेक्ष्य को?
वह खुद ही उस सच का एक हिस्सा है,
जिसे देखने, परिप्रेक्ष्य ढूंढता है वह,
यानी वह विधेय है - उद्देश्य नहीं।
धरती ने कहा, हे भाग्यवान
कितने प्यारे हो, देख लेते हो एक सच के,
कितने रूप, या सभी रूपों में फैला एक सच।
फिर भी, या इसलिए,
अगर दिखे तुम्हें वह द्रष्टा, जिसकी दृष्टि थी
यह संसार, सूरज, तुम और मैं,
तो नमन करना मेरी तरफ से भी बार-बार बारम्बार।
यहां अनवरत और अनंतकाल से,
सृष्टि में बंधी और दृष्टि की दासी मैं,
फिर भी शाश्वत हो चली हूं,
ढूंढती हूं मुक्ति, जो फिर भी नहीं है परे,
दृष्टा से या सृष्टा से ..................॥ 4 ॥