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मुक्ति / स्वाति मेलकानी

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जानती हूँ
यह नहीं है प्रेम की परख
कि तुम प्रस्तुत रहो सदा
जब भी मुझे
तुम्हारी आस हो।
या कि मैं बिछ जाऊँ
आँख मूदकर चलते
तुम्हारे कदमों तले।
इसीलिए आज
मैं मुक्त करती हूँ
तुम्हें और स्वयं को
अपेक्षा और उपेक्षा के
सभी दुर्निवार अवसरों से।