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मुझको वह दर्पन देना (मुक्तक) / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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1
दो बोल प्यार के मैं कह दूँ ,अधरों को कम्पन देना
रूप समाए पोर-पोर में, मुझको वे लोचन देना
जिसको चाहे सोना-चाँदी, तमग़ा, सिंहासन देना
जिसमें उसने रूप निहारा , मुझको वह दर्पन देना ।
2
समय नहीं रहता सदा एक- सा ,अपने भी संग छोड़के जाते ।
है शक की सुई बहुत ही घातक,साथी- सगे मुँह मोड़के जाते ।
एक तुम्हीं जो साथ रहे हो प्रिय,काँटों में ,वर्षा तूफानों में
काश हमें कुछ अवसर मिल जाता,नेह- बन्धन कुछ जोड़के जाते।
3
कहाँ खो गए आज प्रियवर,करके प्राणों का संचार।
फिर लौटा दो दिवस पुराने,पहना दो बाहों का हार।
कण्टक पथ है, टूटा रथ है,मन के अश्व घायल ,हारे
हाथ पकड़ लो अब तो मेरा, हो तुम ही मन का उजियार।
4
भूले ही नहीं जब तो कैसे तुम्हारी याद आती।
सूखे नहीं हैं अश्क कैसे हरपल हमको रुलाती।
आज वक़्त ने सजाए मौत जीते जी दी है हमें
चले भी आओ मेरे प्राण रुह तुमको ही बुलाती।
5
जितना उसने था दुत्कारा, उतना पास तुम्हारे आया।
आरोपों को झड़ी लगाकर ,पास तुम्हारे ही पहुँचाया।
मन था जो गंगा सा निर्मल,उसने समझा कलुष नदी-सा
कभी न मन में भाव रहा जो,उसने जो आरोप लगाया।
6
आग पर तुम हर एक किताब रखना
आँसुओं का भी सदा हिसाब रखना।
जलाकरके पन्ने जलना तुम्हें भी
याद इतना पाठ अब जनाब रखना।
7
विषधरों के बीच बीती है ज़िन्दगी
टूटे घट -जैसी रीती है ज़िन्दगी
घाव हुए हज़ारों और हम अकेले
बोलो फिर कैसे ये सीती ज़िन्दगी।
8
उम्मीदों की बगिया मुरझाने लगी है
किस्मत भी अब तो आग लगाने लगी है
जीने की इच्छा अब मन में नहीं बाकी
मौत आकरके पंजा लड़ाने लगी है।
9
दग़ा देने वाले सवाल पूछते हैं
पिलाकरके ज़हर फिर हाल पूछते हैं
चन्दन -सी ज़िन्दगी सब राख कर डाली
कितना हुआ हमको मलाल पूछते हैं।
10
खुद से रही है शिकायत हमारी
किसी से रही न अदावत हमारी
बहुत हो चुका अब चलना पड़ेगा
माफ़ करना तुम हर आदत हमारी।