भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुझमें तुम रचो / सुभाष राय

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:23, 12 जून 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुभाष राय |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> सूरज उगे, न उगे चाँ…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सूरज उगे, न उगे
चाँद गगन में
उतरे, न उतरे
तारे खेलें, न खेलें

मैं रहू‘ंगा सदा-सर्वदा
चमकता निरभ्र
निष्कलुष आकाश में
सबको रास्ता देता हुआ
आवाज़ देता हुआ
समय देता हुआ
साहस देता हुआ

चाहे धरती ही
क्यों न सो जाए
अंतरिक्ष क्यों न
जंभाई लेने लगे
सागर क्यों न
ख़ामोश हो जाए

मेरी पलकें नहीं
गिरेंगी कभी
जागता रहूँगा मैं
पूरे समय में
समय के परे भी

जो प्यासे हों
पी सकते हैं मुझे
अथाह, अनंत
जलराशि हूँ मैं
घटूँगा नहीं
चुकूँगा नहीं

जिनकी साँसें
उखड़ रही हों
टूट रही हों
जिनके प्राण
थम रहे हों
वे भर लें मुझे
अपनी नस-नस में
सींच लें मुझसे
अपना डूबता हृदय
मैं महाप्राण हूँ
जीवन से भरपूर
हर जगह भरा हुआ

जो मर रहे हों
ठंडे पड़ रहे हों
डूब रहे हों
समय विषधर के
मारक दंश से आहत
वे जला लें मुझे
अपने भीतर
लपट की तरह
मैं लावा हूँ
गर्म दहकता हुआ
मुझे धारण करने वाले
मरते नहीं कभी
ठंडे नहीं होते कभी

जिनकी बाहें
बहुत छोटी हैं
अपने अलावा किसी को
स्पर्श नहीं कर पातीं
जो अंधे हो चुके हैं लोभ में
जिनकी दृष्टि
जीवन का कोई बिम्ब
धारण नहीं कर पाती
वे बेहोशी से बाहर निकलें
संपूर्ण देश-काल में
समाया मैं बाहें
फैलाये खड़ा हूं
उन्हें उठा लेने के लिए
अपनी गोद में

मैं मिट्टी हूँ
पृथ्वी हूँ मैं
हर रंग, हर गंध
हर स्वाद है मुझमें
हर क्षण जीवन उगता
मिटता है मुझमें
जो चाहो रच लो
जीवन, करुणा
कर्म या कल्याण

मैंने तुम्हें रचा
आओ, अब तुम
मुझमें कुछ नया रचो