भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुझे, बेकार की हुज्जत बताकर छोड़ देता है / दीपक शर्मा 'दीप'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुझे, बेकार की हुज्जत बताकर छोड़ देता है
मेरा अपना मुझे पागल बनाकर छोड़ देता है

हमारा चाक-कुरता भी न हमसे दूर हो पाया
कोई कैसे किसी को पास लाकर छोड़ देता है

न जाने लुत्फ़ आता है उसे इस खेल में कैसा
गिराता है , उठाता है , उठाकर छोड़ देता है

ज़रा-सा फ़ासला उससे रखो तो वो निबाहेगा
वगर्ना वो बहुत नज़दीक पाकर छोड़ देता है

हमारी भी कमी है कि कुएँ में कूद जाते हैं
मग़र वो आँख में पट्टी लगाकर छोड़ देता है

यहाँ के शातिरों में ख़ैर अव्वल नाम है उसका
बुलाता है, घुमाता है, घुमाकर छोड़ देता है

फ़लक़ पे बैठने वाला कोई बदमाश कम है क्या
हमारी ज़ात मछली है, फसाकर छोड़ देता है

मेरा उस्ताद जो कि है मुझी में, है वही सच्चा
लगाता है हुनर के पर, लगाकर छोड़ देता है

ज़माने को पलटकर के न देखो दीप , बढ़ना है
ज़माना है , ज़माना तो बुलाकर छोड़ देता है