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मुझे कैफ़-ए-हिज्र अज़ीज़ है तू ज़र-ए-विसाल समेट ले / राम रियाज़

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मुझे कैफ़-ए-हिज्र अज़ीज़ है तू ज़र-ए-विसाल समेट ले
मैं जो तेरा कोई गिला करूँ मिरी क्या मजाल समेट ले

मिरे हर्फ़ ओ सौत भी छीन ले मिरे सब्र-ओ-ज़ब्त के साथ तू
मिरा कोई माल बुरा नहीं मेरा सारा माल समेट ले

ये तमाम दिन की मसाफ़तें ये तमाम रात की आफ़तें
मुझे इन दिनों से नजात दे मिरा ये वबाल समेट ले

सभी रेज़ा रेज़ा इनायतें उसी एक की हैं रिवायतें
वो जो लम्हा लम्हा बिखेर दे वो जो साल साल समेट ले

तिरे इंतिज़ार में इस तरह मिरा अहद-ए-शौक़ गुज़र गया
सर-ए-शाम जैसे बिसात-ए-दिल कोई ख़स्ता-हाल समेट ले

तिरे रूख़ पे चाँद भी दर्द है तिरा इस में कौन सा हर्ज है
तू अगर ये हाशिया छोड़ दे तो अगर ये बाल समेट ले

ये हमारा शौक़ था हम ने अपने गुलों में परिंदे सजा लिए
उसे इख़्तियार है ‘राम’ जब भी वो चाहे जाल समेट ले