मैंने कर दिया है
अपना सर्वस्व तुम्हें अर्पण
मेरे पास अब
न रूप है, न मन
कोरे पन्ने सा हो गया मेरा
श्वेत रंग
अब न बिम्ब है, न प्रतिबिम्ब
शेष है सर्वत्र
प्रेममय भावो के निर्मल
कांच से निर्मित
बस एक दर्पण
करते-करते तुम्हारा पूजन
मुझे गाने लगे हैं भजन
मुझे भाने लगे हैं
तुम्हारे स्मरनो के पवित्र चरण
पड़ा रहता हूँ वहीं पर
होऊं जैसे -
ढेरों अर्पित सुगन्धित शुष्क सुमन
न जड़ हूँ न चेतन
शेष हैं सर्वत्र
तुम्हारी यादों की महक से -
भरा बस
एक उपवन
टूट कर मैं पर्वत
तुम नदी में घुल गया
मुझे ढूँढने के लिये
बचा नहीं एक भी कण
न रेत हूँ, न हूँ पवन
शेष है सर्वत्र
बूंदों में सागर का
लिये सपन
बस एक उदगम