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मुझे दिया गया शरीर / ओसिप मंदेलश्ताम

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मुझे दिया गया शरीर, मैं क्या करूँ इसका

जितना बेजोड़ यह मेरा है और भला किसका ?


इस शान्त ख़ुशी, इन साँसों और जीवन के लिए

किसका शुक्रिया अदा करूँ मैं, बताओ प्रिय ?


मैं ख़ुद ही माली हूँ और मैं ही तो हूँ बग़ीचा,

दुनिया के इस अंधेरे में, सिर्फ़ मैं ही नहीं हूँ रीता ।


अमरत्व के इस काँच पर, ऎ फकीर !

लेटी हुई है आत्मा मेरी और शरीर ।


इस काँच पर ख़ुदे हुए हैं कुछ बेलबूटे ऎसे,

पहचानना कठिन है जिन्हें पिछले कुछ समय से ।


समय की गन्दी धारा यह बह जाने दो

ख़ुदे हुए इन प्रिय बेलबूटों को रह जाने दो ।


(रचनाकाल : 1909)