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मुझे नीली स्याही लगी एक दवात छोड़कर जाने दो / संजय कुमार शांडिल्य

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हत्यायों और हादसों के अभ्यस्त क़स्बे के बीच
पुरातात्विक खुदाई में
टेराकोटा ईंटों से बना
एक पुराना विहार झाँकने लगता है
कुछ दिन की जगमग उत्साहों के बाद क़स्बे में
उदासीन लोग हलवाई की दुकानों पर
जलेबियाँ खाने के लिए इकट्ठा होते हैं
तृष्णा, माया, बन्धन, मुक्ति के प्रश्न और उनके
उत्तर
हर बरसात में थोड़ा-थोड़ा बिलाते हुए
किसी खपड़े में, किसी झिकटी में
फावड़े के साथ बाहर निकलते हैं
आपने इन चीज़ों को जहाँ रख दिया है
वह भी एक पृथ्वी-गर्भ है
नीली स्याही लगी हुई वह तीन हज़ार साल पुरानी दवात
अपनी इबारतों को नहीं पुकार सकती है
किन बेचैनियों में एक नफ़ीस छिला हुआ सरकण्डा उसमें डूबा है
आज इसे कोई नहीं जानता
लोग रामायण और महाभारत याद-रखते बाँचते
समय का कितना यथार्थ बचा पाते हैं?
कोई लड़कर अपने समय की हिंसा से,
प्यार करता है
अपनी प्रेयसी को अस्थियों से बनी चूड़ियाँ भेंट देता है
नंग -धड़ंग त्रिशूल-धारी अनागरिक के हाथों अपने मृत होने से पूर्व
होए, होए पुकारता हुआ
अपनी प्रियतमा को
आँख बंद होने से पूर्व जिसकी एक झलक
मुक्ति है
यह कथा किसी त्रिपिटक में लिखी हुई नहीं है
वह भुर्जपत्र सबसे पहले सड़ा विध्वंस के बाद की पहली बारिश में
होए-होए हो सकता है उस समय की भाषा में
हृदय को विगलित करती करुणा की सबसे
अप्रतिम पुकार हों
जिसे चारागाह में जुगाली करती गाएँ भी समझती हों
जो भाषा शिष्ट हो कर बची हुई है उसमें करुणा के सबसे कम शब्द बचे हैं
हिंसा के ढूँढ़ लो तो हज़ार मिल जाएँगे
कुछ तो मैं लिखता हूँ और मुझे लिखना होगा
जब रामायण और महाभारत सृजन में होंगे
त्रिपिटक रचना में
उस मृदुभाण्ड की वह छोटी सी दवात जिससे चिपकी हुई नीली स्याही आज भी झाँकती है
पृथ्वी गर्भ से
मर्म की विस्मृत, असंरक्षित वह पुकार कहीं
दर्ज नहीं है
शायद उसका रचा काव्य नहीं हो, शब्दों का घोंसला हो
कोई तो गाने वाली चिड़िया वहाँ रहती होगी
महाकवियों! मैं इस जलती हुई पृथ्वी पर रहा हूँ
मैंने प्रेम किया है, सरकण्डे छीले हैं
मैंने अपनी भाषा में दुनिया की सबसे गहनतम करुणा में
किसी का नाम पुकारा है
मुझे नीली स्याही लगी एक दवात छोड़कर जाने दो।