भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुझे स्वीकार नहीं / शमशाद इलाही अंसारी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


मुझे वो गुंबद मत दिखा..
वो मीनारें
वो इबादतगाहें
उनसे जुडी कहानियाँ
युद्ध के किस्से
मज़हब की खाल में घुसे
वो सियासी हमले
वो फ़ौजी छावनियाँ
वो फ़ौज़ी अभियान
घोडों की टापों से रौंदा गया
धरती का एक बडा भू-भाग
जिसे नाम दिया था
तुम्हारे दंभ ने - दुनिया
उद्घघोषित किया था तुमने अपने से पूर्वकाल को
अंधकार और जहालत..
मैं डरता हूँ उन खूनी किस्सों से
सीना पीटती सालाना छातियों से
गली-चौराहों पर इंसानी खून बहाते जवान खू़न से
कभी न खत्म होने वाली इस रिवायत से
बढती हुई दाढ़ियों से
वक्त को बदलने से रोकने की
तुम्हारी दुस्साहसी कवायद से
तुम्हारे अंहकार से
तुम्हारे अंतिम सत्य से
तुम्हारी कब्र की प्रताड़ना के प्रवचनों से
मृत्युपरांत तुम्हारे ईश्वर के पैशाचिक रुप से
उसके यातना-शिविर, उसकी लहु-पिपासा से
मैं नहीं डरता तुमसे
मैं डरपोक नहीं
मैं बस डरता हूँ तुम्हारे खतरनाक इरादों से.
तुम्हारे चलाए ये डर के उद्योग कब तक चलेंगे ?
कब समाप्त होंगे ये जहालत, ये अज्ञान ?
घमण्ड, भ्रम का दुष्प्रचार ?
घिनौनी सियासत का खोटा सिक्का कब तक चलेगा..?
ये आदिकालीन मूर्छा कब टूटेगी जिसके तहत
सजा रखे हैं तुमने
दुनिया को जीत लेने के ख़्वाब..?
पीढी-दर-पीढी सौंप रहे हो
इस दिवास्वप्न की छड़ी
जिसे ढोते-ढोते इंसान के जहन में
बन चुका है नासूर
ये सिलसिला, ये दुष्चक्र
अब मुझे स्वीकार नहीं.
क्योकि फ़तह सियासत है
और फ़न्हा होना है मज़हब
तुमने इस सार्वभौम मर्म को उलट दिया है
यह, मुझे स्वीकार नहीं.
 
 
रचनाकाल= 9 सितम्बर 2010