मुझ पे ज़मज़म लुटाते तो कुछ बात थी
आब-ए-कौसर पिलाते तो कुछ बात थी
सिर्फ़ रौज़ा दिखा कर ही लौटा दिया
ख़ाक-ए-तैबा बनाते तो कुछ बात थी
कितनी उम्मीदें लाई थी तकमील को
बर जो उम्मीदें लाते तो कुछ बात थी
मैं तो पलकों से सहलाती उन के क़दम
पास वो जो बिठाते तो कुछ बात थी