भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुठ्ठी भर रेत / विजय कुमार पंत

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

समर्पण ओढ़े
किनारे पर
मैं
करती रही
इंतजार!
तुम भी आते रहे
जब जी किया,
मुझे भीगाते रहे,
और फिर
बेपरवाह, बेफिक्र
जाते रहे …..बार- बार
मुझे
सुखाता रहा
मेरा ही दर्प,
और मैं फिसलती गयी
सुनहरे समय की मुठ्ठियों से
देखो !
कैसे बिखर गया है
तुम्हारे अथाह किनारों पर
मेरा कण कण
रेत बनकर...