भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुब्तिला-ए-दर्द-ओ-ग़म रहता हूँ मैं तो सुब्ह-ओ-शाम / जावेद क़मर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुब्तिला-ए-दर्द-ओ-ग़म रहता हूँ मैं तो सुब्ह-ओ-शाम।
इज़्तिराब-ए-ज़िन्दगी से सामान है गाम गाम।

बे-रुख़ी ने आप की ये हाल मेरा कर दिया।
चैन दिल का लुट गया नींदें हुईं मेरी हराम।

रोज़-ओ-शब हम आप के पहलू में करते थे बसर।
था कभी हासिल हमें भी आप का क़ुर्ब-ए-मुदाम।

एक आलम था तमाशाई ज़ुलैख़ा की तरह।
मिस्र के बाज़ार में जिस दम लगे यूसुफ़ के दाम।

देखता हूँ आबरू महफ़ूज़ कलियों की नहीं।
बाग़बाँ ये गुलसिताँ का हो गया कैसा निज़ाम।

सिर्फ़ सच्चाई नहीं बिकती है इस बाज़ार में।
वक़्त के बाज़ार में हर चीज़ के लगते हैं दाम।

उस की पगङी भी उछालेगा कोई तुम देखना।
जो बुज़ुर्गों का नहीं करता है अपने एहतिराम।

क्या मिरे हिस्से की साक़ी और कोई पी गया।
बर सरे मयख़ाना ख़ाली किस लिए मेरा है जाम।

देख कर मुझ को निगाहें फेर लेगा वह 'क़मर' ।
क्या ख़बर थी इश्क़ में आएगा ऐसा भी मक़ाम।