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मुरेठनी / दिलीप कुमार झा

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एखनो एहिना मोन अछि
छिटबला ललका नुआ पहिरने
माथापर ढकिया उठेने
मुरेठनी देने चलि जा रहल छल टँसगर टाहि
लेबै कोबी भाँटा मेरचाई
अपने खेतक उपजाओल तरकारी बेचबा लए
कतेक लय
कतेक आत्मीयता
मुदा एतेक जल्दी मुरेठनीक ढकिया छिना जेतै
जरीना, फातिमा बेकाम भ' जेतै
से त' सोचनहुँ नै रही
वास्तवमे हमर ई दृष्टिदोष छल
जे दिन दुपहरिया
ठहाठहि इजोरियामे
समयकेँ धुँआइत नहि देख सकलहुँ।
बड़ उत्साहसँ कहलनि पुष्पा
अहाँकेँ तरकारी अनबाक कोनो तरदूत नहि
द' जायत सभटा नियंत्रित मूल्यपर
कम्प्युटर तुलापर तौल क'
रेड बास्केटक व्यापारी
पूरा मोहल्ला ओकरेसँ किनतै
मुरेठनी सँ आब कियो नै लेतै कियो तरकारी
बड़ बेस! जे सभक विचार
मुदा एकटा बात राखब मोन
ओ सिर्फ़ मुरेठनीक ढकिया नहि छिनलक अछि
ओ छिनलक अछि
अहाँक डाली-पनपथिया
आगाँ छिन लेत अहाँक
छिट्टा-खुरपी
चँगेरा-चंगेरी
धुथरी-मउनीक संग
अहाँक भाषा संवेदना
अहाँक स्मृतिक ओ सभ वस्तु
जकरा अहाँ अपन कहै छियै
अपन कहबा लए शाइत अपन शब्द नहि बाँचत।