भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुर्गे राजा बोलो जी / शकुंतला कालरा

Kavita Kosh से
Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:08, 5 अक्टूबर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शकुंतला कालरा |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बड़े सवेरे जग जाते क्यों
बँधी गाँठ को खोलो जी,
नींद नहीं क्या आती तुमको
मुर्गे राजा बोलो जी।
देकर बांग जगाते तुम ही
भोले-भाले बच्चे जी,
नानी आती याद सभी को
लगते तुम ना अच्छे जी।
क्या ये अच्छी बात जरा-सा,
खुद को अरे टटोलो जी।
जाना पड़ता शाला उठकर
ढोकर बस्ता भारी जी,
दुखने लगते दोनों कंधे
दुखती पीठ हमारी जी।
बस्ता लेकर, आज हमारे
संग साथ तुम हो लो जी।
करते विनती हाथ जोड़ हम,
कल से नहीं जगाना तुम,
लंबी चादर तान नींद की-
आँख मींच सो जाना तुम।
जल्दी से हाँ करो, फैसला-
लेकर झटपट बोलो जी।