भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुर्दाघर / विनीत उत्पल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अब हड़ताल नहीं होती
दफ्तरों में, फैक्ट्रियों में
अपनी मांगों को लेकर
किसी भी शहर में
 
अब धरना-प्रदर्शन नहीं होता
मंत्रालयों या विभागों के सामने
किसी मुआवजे को लेकर
किसी भीड़भाड़ वाली सड़क पर
 
अब झगड़ा-फसाद नहीं होता
चौक-चौराहे या नुक्कड़ पर
अपने अधिकार को लेकर
किसी भी मोहल्ले में
 
जबकि अब भी मांगें हैं अधूरी
नहीं मिला है लोगों को मुआवजा
अपने अधिकार से बेदखल किए जा रहे हैं लोग
हर तरफ नजर आ रहे हैं मुद्दे ही मुद्दे
 
स्त्री की मांगें हो रही है सूनी
समाज के तथाकथित सफेदपोश ठेकेदार
निकाल रहे हैं तमाम जनाजे
घुट रही है स्त्रियां, घुट रहे हैं पुरूष
 
बहरहाल, वह देश, देश नहीं
जहां मांगों को लेकर
मुआवजे को लेकर
अधिकार को लेकर
मुद्दे को लेकर
आवाज नहीं उठती
छायी रहती है खामोशी
 
वह तो होता है मुर्दाघर।