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मुसलसल ज़ाफ़रानी हो रही है / उत्कर्ष अग्निहोत्री

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मुसलसल ज़ाफ़रानी हो रही है।
नज़र जितनी पुरानी हो रही है।

ख़ुदा है हर तरफ और हर तरह से,
उसी की तर्जमानी हो रही है।

ग़ज़ल मेरी नहीं है दास्ताँ ये,
ज़माने की कहानी हो रही है।

उन्हें कुछ काम हमसे आ पड़ा है,
तभी तो महरबानी हो रही है।

ज़ुबाँ की क़द्र क्या बच्चे करें जब,
घरों में बदज़ुबानी हो रही है।

नदी को छू रहा है एक सूरज,
तभी तो पानी-पानी हो रही है।