भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुस्कानों के नेपकिन बिछा / रवीन्द्रनाथ त्यागी

Kavita Kosh से
गंगाराम (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:29, 17 फ़रवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रवीन्द्रनाथ त्यागी |संग्रह= }} <poem> मुस्कानों के न...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुस्कानों के नेपकिन बिछा
वे एक-दूसरे को ही खाने लगे
चुपचाप

पलाश, भाद्रपदी हवाएँ और वर्षा
उन्होंने कुछ नहीं देखा;

उन्होंने सिर्फ़ उन्हें आँका
जिनके खा जाने के बाद
उनका भय और बढ़ना था

समुद्र की मेज़ पर
शाम के बावर्ची ने
सूरज का मुर्गा कर दिया हलाल

और वे सब अफ़सर, दलाल और वकील
उन लोगों से गले मिलने लगे
जिन्हें निगलना अभी बाक़ी था

पलाश, भाद्रपदी हवाएँ और वर्षा
उन्होंने कुछ नहीं देखा।