भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुस्तक़र की ख़्वाहिश में मुंतशर से रहते हैं / साबिर

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:34, 8 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=साबिर }} {{KKCatGhazal}} <poem> मुस्तक़र की ख़्व...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुस्तक़र की ख़्वाहिश में मुंतशर से रहते हैं
बे-कनार दरिया में लफ़्ज़ लफ़्ज़ बहते हैं

सब उलट-पलट दी हैं सर्फ़-ओ-नहव-ए-देरीना
ज़ख़्म ज़ख़्म जीते हैं लम्हा लम्हा सहते हैं

यार लोग कहते हैं ख़्वाब का मज़ार उस को
अज़-रह-ए-रवायत हम ख़्वाब-गाह कहते हैं

रौशनी की किरनें हैं या लहू अंधेरे का
सुर्ख़-रंग क़तरे जो रौज़नों से बहते हैं

ये क्या बद-मज़ाक़ी है गर्द झाड़ते क्यूँ हो
इस मकान-ए-ख़स्ता में यार हम भी रहते हैं